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उम्मीद

Tuesday, April 27, 2010



आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,
तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते ।
आज जीवन में हमारे उलझनें जो आ पड़ीं हैं,
और यदि सामर्थ्य से लगने लगी विपदा बड़ी है ।
दीप यदि उम्मीद का , होकर विवश बुझने लगा है,
और मन का दीप्त कोना ज्योति से चुकने लगा है ।
नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,
श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।
आदमी के सामने कोई विपद कब तक टिकेगा ?
यदि हिमालय भी खड़ा हो सामने, पल में मिटेगा ।
कर-द्वयों से तोड़ लाते तुम्हें , नभ के चाँद- तारों
सोच लो, क्या कर गुजरते, हाथ होते गर हज़ारों ।